Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद


रंगभूमि अध्याय 44

गंगा से लौटते दिन के नौ बज गए। हजारों आदमियों का जमघट, गलियाँ तंग और कीचड़ से भरी हुई, पग-पग पर फूलों की वर्षा, सेवक-दल का राष्ट्रीय संगीत, गंगा तक पहुँचते-पहुँचते ही सबेरा हो गया था। लौटते हुए जाह्नवी ने कहा-चलो, जरा सूरदास को देखते चलें, न जाने मरा या बचा; सुनती हूँ, घाव गहरा था।
सोफिया और जाह्नवी, दोनों शफाखाने गईं, तो देखा, सूरदास बरामदे में चारपाई पर लेटा हुआ है, भैरों उसके पैताने खड़ा है और सुभागी सिरहाने बैठी पंखा झल रही है। जाह्नवी ने डॉक्टर से पूछा-इसकी दशा कैसी है, बचने की कोई आशा है?
डॉक्टर ने कहा-किसी दूसरे आदमी को यह जख्म लगा होता, तो अब तक मर चुका होता। इसकी सहन-शक्ति अद्भुत है। दूसरों को नश्तर लगाने के समय क्लोरोफार्म देना पड़ता है, इसके कंधो में दो इंच गहरा और दो इंच चौड़ा नश्तर दिया गया, पर इसने क्लोरोफार्म न लिया। गोली निकल आई है, लेकिन बच जाए, तो कहें।
सोफिया को एक रात की दारुण शोक-वेदना ने इतना घुला दिया था कि पहचानना कठिन था, मानो कोई फूल मुरझा गया हो। गति मंद,मुख उदास, नेत्र बुझे हुए, मानो भूत- जगत् में नहीं, विचार-जगत् में विचर रही है। आँखों को जितना रोना था, रो चुकी थीं, अब रोयाँ-रोयाँ रो रहा था। उसने सूरदास के समीप जाकर कहा-सूरदास, कैसा जी है? रानी जाह्नवी आई हैं।
सूरदास-धन्य भाग। अच्छा हूँ।
जाह्नवी-पीड़ा बहुत हो रही है?
सूरदास-कुछ कष्ट नहीं है। खेलते-खेलते गिर पड़ा हूँ; चोट आ गई है, अच्छा हो जाऊँगा। उधर क्या हुआ, झोंपड़ी बची कि नहीं?
सोफी-अभी तो नहीं गई है, लेकिन शायद अब न रहे। हम तो विनय को गंगा की गोद में सौंपे चले आते हैं।
सूरदास ने क्षीण स्वर में कहा-भगवान् की मरजी, वीरों का यही धरम है। जो गरीबों के लिए जान लड़ा दे, वही सच्चा वीर है।
जाह्नवी-तुम साधु हो। ईश्वर से कहो, विनय का फिर इसी देश में जन्म हो।
सूरदास-ऐसा ही होगा माताजी, ऐसा ही होगा। अब महान् पुरुष हमारे ही देश में जनम लेंगे। जहाँ अन्याय और अधरम होता है, वहीं देवता लोग जाते हैं। उनके संस्कार उन्हें खींच ले जाते हैं। मेरा मन कह रहा है कि कोई महात्मा थोड़े ही दिनों में इस देश में जनम लेनेवाले हैं...!
डॉक्टर ने आकर कहा-रानीजी, मैं बहुत भेद के साथ आपसे प्रार्थना करता हूँ कि सूरदास से बातें न करें, नहीं तो जोर पड़ने से इनकी दशा बिगड़ जाएगी। ऐसी हालत में सबसे बड़ा विचार यह होना चाहिए कि रोगी निर्बल न होने पाए, उसकी शक्ति क्षीण न हो।
अस्पताल के रोगियों और कर्मचारियों को ज्यों ही मालूम हुआ कि विनयसिंह की माताजी आई हैं, तो सब उनके दर्शनों को जमा हो गए,कितनों ही ने उनकी पद-रज माथे पर चढ़ाई। यह सम्मान देखकर जाह्नवी का हृदय गर्व से प्रफुल्लित हो गया। विहसित मुख से सबों को आशीर्वाद देकर यहाँ से चलने लगीं, तो सोफिया ने कहा-माताजी, आपकी आज्ञा हो, तो मैं यहीं रह जाऊँ। सूरदास की दशा चिंताजनक जान पड़ती है। इसकी बातों में वह तत्तवज्ञान है, जो मृत्यु की सूचना देता है। मैंने इसे होश में कभी आत्मज्ञान की ऐसी बातें करते नहीं सुना।
रानी ने सोफी को गले लगाकर सहर्ष ही आज्ञा दे दी। वास्तव में सोफिया सेवा-भवन जाना न चाहती थी। वहाँ की एक-एक वस्तु, वहाँ के फूल-पत्तो, यहाँ तक कि वहाँ की वायु भी विनय की याद दिलाएगी। जिस भवन में विनय के साथ रही, उसी में विनय के बिना रहने का खयाल ही उसे तड़पाए देता था।
रानी चली गई, तो सोफिया एक मोढ़ा डालकर सूरदास की चारपाई के पास बैठ गई। सूरदास की आँखें बंद थीं, पर मुख पर मनोहर शांति छाई हुई थी। सोफिया को आज विदित हुआ कि चित्ता की शांति ही वास्तविक सौंदर्य है।
सोफी को वहाँ बैठे-बैठे सारा दिन गुजर गया। वह निर्जल, निराहार, मन मारे बैठी हुई सुखद स्मृतियों के स्वप्न देख रही थी, और जब आँखें भर आती थीं, तो आड़ में जाकर रूमाल से आँसू पोंछ आती थी। उसे अब सबसे तीव्र वेदना यही थी कि मैंने विनय की कोई इच्छा पूरी नहीं की, उनकी अभिलाषाओं को तृप्त न किया, उन्हें वंचित रखा। उनके प्रेमानुराग की स्मृति उसके हृदय को ऐसा मसोसती थी कि वह विकल होकर तड़पने लगती थी।
संधया हो गई थी। सोफिया लैम्प के सामने बैठी हुई सूरदास को प्रभु मसीह का जीवन-वृत्तांत सुना रही थी। सूरदास ऐसा तन्मय हो रहा था, मानो उसे कोई कष्ट नहीं है। सहसा राजा महेंद्रकुमार आकर खड़े हो गए और सोफी की ओर हाथ बढ़ा दिया। सोफिया ज्यों-की-त्यों बैठी रही। राजा साहब से हाथ मिलाने की चेष्टा न की।
सूरदास ने पूछा-कौन है मिस साहब?
सोफिया ने कहा-राजा महेंद्रकुमार हैं।
सूरदास ने आदर-भाव से उठना चाहा, पर सोफिया ने लिटा दिया और बोली-हिलो मत, नहीं तो घाव खुल जाएगा। आराम से पड़े रहो।
सूरदास-राजा साहब आए हैं। उनका इतना आदर भी न करूँ? मेरे ऐसे भाग्य तो हुए। कुछ बैठने को है?
सोफिया-हाँ, कुर्सी पर बैठ गए।
राजा साहब ने पूछा-सूरदास कैसा जी है?
सूरदास-भगवान् की दया है।
राजा साहब जिन भावों को प्रकट करने यहाँ आए थे, वे सोफी के सामने उनके मुख से निकलते हुए सकुचा रहे थे। कुछ देर तक वे मौन रहे, अंत को बोले-सूरदास, मैं तुमसे अपनी भूलों की क्षमा माँगने आया हूँ। अगर मेरे वश की बात होती, तो मैं आज अपने जीवन को तुम्हारे जीवन से बदल लेता।
सूरदास-सरकार, ऐसी बात न कहिए; आप राजा हैं, मैं रंक हूँ। आपने जो कुछ किया, दूसरों की भलाई के विचार से किया। मैंने जो कुछ किया, अपना धरम समझकर किया। मेरे कारन आपको अपजस हुआ, कितने घर नास हुए, यहाँ तक कि इंद्रदत्ता और कुँवर विनयसिंह जैसे दो रतन जान से गए। पर अपना क्या बस है! हम तो खेल खेलते हैं, जीत-हार तो भगवान् के हाथ है। वह जैसा उचित जानते हैं, करते हैं,बस, नीयत ठीक होनी चाहिए।
राजा-सूरदास, नीयत को कौन देखता है। मैंने सदैव प्रजा-हित ही पर निगाह रखी, पर आज सारे नगर में एक भी प्राणी ऐसा नहीं है, जो मुझे खोटा, नीच, स्वार्थी, अधर्मी, पापिष्ठ न समझता हो। और तो क्या, मेरी सहधर्मिणी भी मुझसे घृणा कर रही है। ऐसी बातों से मन क्यों न विरक्त हो जाए? क्यों न संसार से घृणा हो जाए? मैं तो अब कहीं मुँह दिखाने-योग्य नहीं रहा।
सूरदास-इसकी चिंता न कीजिए। हानि, लाभ, जीवन, मरन, जस, अपजस विधि के हाथ है, हम तो खाली मैदान में खेलने के लिए बनाए गए हैं। सभी खिलाड़ी मन लगाकर खेलते हैं, सभी चाहते हैं कि हमारी जीत हो; लेकिन जीत एक ही की होती है, तो क्या इससे हारनेवाले हिम्मत हार जाते हैं? वे फिर खेलते हैं; फिर हार जाते हैं, तो फिर खेलते हैं। कभी-न-कभी उनकी जीत होती ही है। जो आपको आज बुरा समझ रहे हैं, वे कल आपके सामने सिर झुकाएँगे। हाँ, नीयत ठीक रहनी चाहिए। मुझे क्या उनके घरवाले बुरा न कहते होंगे, जो मेरे कारन जान से गए? इंद्रदत्ता और कुँवर विनयसिंह-जैसे दो लाल, जिनके हाथों संसार का इतना उपकार होता संसार से उठ गए। जस-अपजस भगवान् के हाथ है, हमारा यहाँ क्या बस है?
राजा-आह सूरदास, तुम्हें नहीं मालूम कि मैं कितनी विपत्तिा में पड़ा हुआ हूँ। तुम्हें बुरा कहनेवाले अगर दस-पाँच होंगे, तो तुम्हारा जस गानेवाले असंख्य हैं, यहाँ तक कि हुक्काम भी तुम्हारी दृढ़ता और धैर्य का बखान कर रहे हैं। मैं तो दोनों ओर से गया। प्रजाद्रोही भी ठहरा और राजद्रोही भी। हुक्काम इस सारी दरुव्यवस्था का अपराध मेरे ही सिर पर थोप रहे हैं। उनकी समझ में भी मैं अयोग्य, अदूरदर्शी और स्वार्थी हूँ। अब तो यही इच्छा होती है कि मुँह में कालिख लगाकर कहीं चला जाऊँ।
सूरदास-नहीं-नहीं, राजा साहब, निराश होना खिलाड़ियों के धरम के विरुध्द है। अबकी हार हुई, तो फिर कभी जीत होगी।
राजा-मुझे तो विश्वास नहीं होता कि फिर कभी मेरा सम्मान होगा। मिस सेवक, आप मेरी दुर्बलता पर हँस रही होंगी, पर मैं बहुत दुखी हूँ।
सोफिया ने अविश्वास-भाव से कहा-जनता अत्यंत क्षमाशील होती है। अगर अब भी आप जनता को यह दिखा सकें कि इस दुर्घटना पर आपको दु:ख है, तो कदाचित् प्रजा आपका फिर सम्मान करे।
राजा ने अभी उत्तार न दिया था कि सूरदास बोल उठा-सरकार, नेकनामी और बदनामी बहुत आदमियों के हल्ला मचाने से नहीं होती। सच्ची नेकनामी अपने मन में होती है। अगर अपना मन बोले कि मैंने जो कुछ किया, वही मुझे करना चाहिए था, इसके सिवा कोई दूसरी बात करना मेरे लिए उचित न था, तो वही नेकनामी है। अगर आपको इस मार-काट पर दु:ख है, तो आपका धरम है कि लाट साहब से इसकी लिखा-पढ़ी करें। वह न सुनें, तो जो उनसे बड़ा हाकिम हो, उससे कहें-सुनें, और जब तक सरकार परजा के साथ न्याय न करे, दम न लें। लेकिन अगर आप समझते हैं कि जो कुछ आपने किया, वही आपका धरम था, स्वार्थ के लोभ से आपने कोई बात नहीं की, तो आपको तनिक भी दु:ख न करना चाहिए।

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